खाटू श्याम का मंदिरआस्था और आशीर्वाद: देश में लाखों मंदिर है भगवान खाटू श्याम के लेकिन आज तक जो शीश की पूजा सीकर के खाटू श्याम में होती है वैसा शीश का पेंटिंग या मूर्ति कोई कलाकार या मूर्तिकार नहीं बना पाया ये एक बाबा का चमत्कार ही है। भगवान खाटू श्याम के शीश में श्रीकृष्ण जी की सोलह कलायें विधमान है ऐसा भगवान कृष्ण ने वरदान दिया तभी से इनका नाम श्याम पड़ा।

पौराणिक मान्यता के अनुसार, खाटू श्याम जी ने द्वापरयुग में श्री कृष्ण से वरदान प्राप्त किया था कि वे कलयुग में उनके नाम श्याम से पूजा जाएँगे। श्री खाटू श्याम जी का विश्व विख्यात मंदिर भारत देश के राजस्थान राज्य के सीकर जिले में है, जहाँ पर खाटू श्याम बाबा के मंदिर के गर्भ गृह में श्याम बाबा के शीश की पूजा की जाती है।

भगवान श्याम का प्राकट्य सीकर जिले में कैसे हुआ ?

कथा के अनुसार एक गाय एक स्थान पर आकर रोज अपने स्तनों से दूध की धारा स्वतः ही बहा देती थी। यह देख कर उस जगह पर खुदाई की गयी, खुदाई के बाद वह शीश प्रकट हुआ। बाद में खाटू नगर के राजा को स्वप्न में मन्दिर निर्माण के लिए और वह शीश मन्दिर में सुशोभित करने बाबा ने आज्ञा दिया। राजा ने तुरंत उस स्थान पर मन्दिर का निर्माण कराया और कार्तिक माह की एकादशी को शीश मन्दिर में सुशोभित किया गया, जिसे बाबा श्याम के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है। मूल मंदिर 1027 ई. में रूपसिंह चौहान और उनकी पत्नी नर्मदा कँवर द्वारा बनाया गया था। मारवाड़ के शासक ठाकुर के दीवान अभय सिंह ने ठाकुर के निर्देश पर 1720 ई. में मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। बर्बरीक के धड़ की पूजा हरियाणा के हिसार ज़िले के स्याहड़वा गांव में होती है

श्रीकृष्ण ने बर्बरीक से मांगा शीश दान

पौराणिक कथा के अनुसार भगवान श्री कृष्ण ने महाभारत युद्ध के शुरुआत में ही घटोत्कच के पुत्र बर्बरीक का सर दान में मांग लिया। क्योकि बर्बरीक ने तपस्या करके भगवान शिव से वरदान में तीन अभेद्य बाण प्राप्त किया, ये बाण इतने शक्तिशाली थे कि महाभारत को एक पल में समाप्त कर सकते थे। इससे पांडव और कौरव दोनों समाप्त हो जाते। बर्बरीक जब महाभारत के युद्ध में सम्मलित होने के लिए निकले तब श्रीकृष्ण ने ब्राह्मण वेश धारण कर बर्बरीक से परिचित होने के लिए उन्हें रोका और यह जानकर उनकी हँसी भी उड़ायी कि वह मात्र तीन बाण से युद्ध में सम्मिलित होने आया है। जबकि इस महाभारत में अर्जुन, कर्ण, अश्वस्थामा , कृपाचार्य, भीष्म जैसे महारथी है, ऐसा सुनने पर बर्बरीक ने उत्तर दिया कि मात्र एक बाण मेरा शत्रु सेना को समाप्त करने के लिये पर्याप्त है और ऐसा करने के बाद बाण वापस मेरे तरकस में ही आएगा।

यदि तीनों बाणों को प्रयोग में लिया गया तो तीनों लोकों में हाहाकार मच जाएगा। इस पर श्रीकृष्ण ने उनकी परीक्षा लेने के लिए कहा की इस पीपल के पेड़ के सभी पत्रों को छेदकर दिखलाओ, जिसके नीचे दोनो खड़े थे। बर्बरीक ने चुनौती स्वीकार की और अपने तुणीर से एक बाण निकाला और बाण पेड़ के पत्तों की ओर चलाया। तीर ने क्षण भर में पेड़ के सभी पत्तों को भेद दिया और श्रीकृष्ण के पैर के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने लगा, क्योंकि एक पत्ता उन्होंने अपने पैर के नीचे छुपा लिया था, बर्बरीक ने कहा कि आप अपने पैर को हटा लीजिए वरना ये आपके पैर को चोट पहुँचा देगा। कहा जाता है भगवान ने बर्बरीक को वरदान दिया की ये स्थान पर अगर मुझे दोबार किसी ने आहत किया तो ये मेरी मृत्यु का कारण बनेगा। श्रीकृष्ण ने बालक बर्बरीक से पूछा कि वह युद्ध में किस ओर से सम्मिलित होगा तो बर्बरीक ने अपनी माँ को दिये वचन दोहराया कि वह युद्ध में उस ओर से भाग लेगा जिस ओर की सेना निर्बल हो और हार की ओर अग्रसर हो। श्रीकृष्ण जानते थे कि युद्ध में हार तो कौरवों की ही निश्चित है और इस पर अगर बर्बरीक ने उनका साथ दिया तो परिणाम उनके पक्ष में ही होगा।

उन्होंने बर्बरीक को समझाया कि युद्ध आरम्भ होने से पहले युद्धभूमि की पूजा के लिए एक वीरवर क्षत्रिए के शीश के दान की आवश्यकता होती है, और अर्जुन और तुमसे ज्यादा बड़ा वीर इस युद्ध में कोई नहीं है लेकिन अर्जुन को धर्म स्थापना के लिए चुना गया है अतः अर्जुन के शीश का दान नहीं लिया जा सकता अतएव भगवान ने बर्बरीक से उनका शीश दान में मांगा। बर्बरीक ने उनसे प्रार्थना की कि वह अंत तक युद्ध देखना चाहता है, श्रीकृष्ण ने उनकी यह बात स्वीकार कर ली। रातभर बर्बरीक ने अपने आराध्य भगवान शिव की पूजा अर्चना की और फाल्गुन माह की द्वादशी को स्नानादि से निवृत्त होकर पूजा अर्चना करने के पश्चात् उन्होंने अपने शीश का दान दिया। उनका सिर भगवान कृष्ण ने युद्धभूमि के समीप ही एक पहाड़ी पर सुशोभित किया गया, जहाँ से बर्बरीक सम्पूर्ण युद्ध का के साक्षी बने।

बर्बरीक का शीश सम्पूर्ण युद्ध का साक्षी है

युद्ध की समाप्ति पर पांडवों में ही आपसी बहस होने लगी कि युद्ध में विजय का श्रेय किसको जाता है, इस पर श्रीकृष्ण ने उन्हें सुझाव दिया कि बर्बरीक का शीश सम्पूर्ण युद्ध का साक्षी है, अतएव उससे बेहतर निर्णायक भला कौन हो सकता है? सभी इस बात से सहमत हो गये। बर्बरीक के शीश ने उत्तर दिया कि श्रीकृष्ण ही युद्ध में विजय प्राप्त कराने में सबसे महान कार्य किया है। उनकी शिक्षा, उनकी उपस्थिति, उनकी युद्धनीति ही निर्णायक थी। उन्हें युद्धभूमि में सिर्फ उनका सुदर्शन चक्र घूमता हुआ दिखायी दे रहा था जो कि शत्रु सेना को काट रहा था। यह सुनकर श्री कृष्ण ने बर्बरीक को वर दिया और कहा कि तुम मेरे श्याम नाम से पूजे जाओगे खाटू नामक ग्राम में प्रकट होने के कारण खाटू श्याम के नाम से प्रसिद्धि पाओगे और मेरी सभी सोलह कलाएं तुम्हारे शीश में स्थापित होंगी और तुम मेरे ही प्रतिरूप बनकर पूजे जाओगे।

भगवान कृष्ण ने वरदान बर्बरीक को दिया

बर्बरीक या भगवान श्याम से उनकी माता ने वचन लिया था की जो हारेगा, जो निर्बल होगा तुम हमेशा उसका सहारा बनना इसलिए भगवान श्याम को हारे का सहारा कहा जाता है, पूरी दुनिया में एकमात्र स्थान या मंदिर है जंहा पर लिखा है हारे के सहारे की जय।
भगवान कृष्ण ने वरदान दिया की जो भी तुम्हारे शीश का दर्शन करेगा वो अपने सभी दुखों से मुक्त हो जायेगा , लोग मेरे नाम से तुम्हारी पूजा करेंगे , जिसके तक़दीर में घोर विपत्ति या रोग लिखा है तुम उसका भी कल्याण करोगे और कलयुग में हर घर में तुम्हारी पूजा होगी।

जो इस मंदिर में निशान अर्पित करता है श्याम बाबा उसके सभी दुःख को दूर करके उससे सम्पन्न कर देते है इसलिए इन्हे लखदातार के नाम से भी जाना जाता है।

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